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अल्लामा-ए-दौरां डॉ. अंदलीब शादानी / हुस्ने-नज़र / रतन पंडोरवी

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फर्शे-नज़र का मुतालआ करने के बार ये अंदाज़ा हुआ कि रतन साहिब फ़क़त नाम के रतन नहीं सचमुच के रतन हैं और पाक व हिन्द की बाज़ मुमताज़ अदबी अंजुमनों ने उन्हें मुम्ताज़ुलशुअरा औ लिसानुलहिन्द वगरैह के ख़िताबात से बेसबब नहीं नवाज़ा। वो एक क़ादरुलकलाम शायर और संजीदा नस्र निगार हैं। एक तरफ वो नज़्म व नस्र की बहुत सी मुफ़ीद और क़ीमती किताबों के मुसननिफ और तीस-पैंतीस ख़ुश-गो सुखनवरों के उस्ताद हैं। और दूसरी तरफ वो दुनिया-ओ- माफीहा से बेनियाज़, इज़्दवाजी ज़िन्दगी के बंधनों से आज़ाद श्री हरगोबिन्दपुर के ग़ैर आबाद मंदिर में, दरिया-ए-व्यास के किनारे दरवेशाना ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं। गुमनामी के ग़ुबार में अटे हुए इस जौहरे-क़ाबिल का क़दर शनास वहां कौन है। मगर आसमान पर कितने ही गहरे बादल छाये हुए क्यों न हों बिजली जब कौंधती है तो दुनिया की नज़रें उसे देखने पर मजबूर हो ही जाती हैं। तहज़ीब-ओ-टीतमद्दुन की पुरशोर दुनिया से अलग और दूर बसने वाले इस दरवेशे-हक़ परस्त का कलाम जब हमारे सामने आता है तो वो बे इख़्तियार हमारा दामने-दिल थाम लेता है।