अल्लामा तारा चरण रस्तोगी ताहिर / हुस्ने-नज़र / रतन पंडोरवी
"फर्शे-नज़र" इक गरां क़द्र अदबी काविश है। ग़ज़लियात नज़्मियात पर मुश्तमिल इस मजमूआ-ए-कलाम में फ़िक्र-ओ-नज़र की वो रिफअतें हैं जो इस को अर्शे-नज़र बनाती हैं। पंडित जी की मुन्कसिरुलमिज़ाजी वाकई क़ाबिले-सताइश है की उन्होंने इस का नाम फर्शे-नज़र रक्खा। तारीखे-अदबियात में सूर, तुलसी, मीरां, कबीर और रसखान जैसे शुअरा ख़ाल ख़ाल ही नज़र आते हैं। रतन साहिब भी बयक वक़्त शायर व आबिद हैं। उन के कलाम में इरफान और तज़्दान से इबारत खुलूसआगी जज़्बात की फरावानी है। दो मिसरों की अख़्तर बख्तर लड़ाने से शेर तो बन सकता ही और उस में वो हेजानी कैफ़ियत भी पैदा की जा सकती है जो मुशाअरे म3 छतें उड़ा सकें, मगर उस में रूहे-तहारत नहीं फूंकी जा सकती। रतन साहिब के कलाम की सब से बड़ी ख़ूबी यही शेरी पाकीज़गी है और शायरी को ज़रूर कलेजे से लगाना चाहिए।