अल्लामा मुनव्वर लखनवी / हुस्ने-नज़र / रतन पंडोरवी
रतन पंडोरवी की शायरी सच्ची शायरी है। ज़िला गुरदासपुर के एक गांव का ये सादा सरिश्त इंसान अपने दिल-ओ-दिमाग में कितनी वुसवतें और गहराइयाँ ले कर पैदा हुआ है। जो इल्म और अदब का एक दीवानए-अज़ीम है। जिस ने इक्तिसाब-ए-फ़न के लिए अपने इस गरां कीमत चोले को तपाया है। रतन में हमारे मुक़द्दस तरीन क़दीम ऋषियों का खुलूस और पाकीज़गी है। उस ने इल्म-ओ-फ़न की इंतिहाई मेराज़ पर पहुंचने के लिए क्या कुछ कर नहीं दिखाया है। ऐसा मज़बूत और आहनी इरादे वाला इंसान जब शेर गोई के मैदान में क़दम रखेगा तो वहां भी उस की मश्क़-ओ-मजावलत एक योगी की सिद्धि का दर्जा यक़ीनन हासिल कर लेगी और रतन पंडोरवी की 'फर्शे-नज़र' (ग़ज़ल संग्रह) से ये हक़ीक़त हमारे सामने और भी ज़ियादा रौशन हो गई है। 'फर्शे-नज़र' ख़ुदा की देन है जो उनके रियाज़ और उन की तपस्या का फल है। फर्शे-नज़र जहां एक तरफ जज़्बात निगारी का मुरकका है वहां इस में फ़न आने पूरे शबाब पर नज़र आता है। ज़बान और बयान के मुआमले में वो पूरी दस्तरस रखते हैं। अपनी गोशानशीनी और उज़्लत गज़ीनी के आलम में भी ये जोगी शायर ख़ुद भी कमाल की मंज़िलें तय करता रहा है और दूसरों के लिए भी शमए-हिदायत का काम अंजाम देता रहा है। वो उर्दू के फ़ाज़िल तो हैं ही फारसी और अरबी से भी वाकिफ़ हैं । मैं रतन साहिब को सिर्फ शायर नहीं समझता उनको एक योगी एक ऋषि समझता हूँ।
बड़ा बे-बहा है दफीना 'रतन' का
की हर शेर है इक नगीना 'रतन' का
बहुत कम मयस्सर हुआ शायरों को
सुख़न में है जैसा क़रीना 'रतन' का
इधर 'शहजहांपुर' है इन का मक़्का
'नकोदर' उधर है मदीना 'रतन' का
रवानी में ऊनी है यक्ता-ए-दौरां
तबीयत 'रतन' की सफ़ीना 'रतन' का
परखने का जिस को सलीक़ा नहीं है
खरीदेगा क्या वो खज़ीना 'रतन' का
हैं ये रिंदे-मशरब बड़े ज़र्फ़ वाले
सलीके का पानी है पीना 'रतन' का
'मुनव्वर' है फानूस अगर ज़ात इन की
है फर्शे-नज़र आबगीना 'रतन' का।