अवगति की गति रहत नियारी।
नहिं पानी नहिं पवन संचरै नहिं वह जोत काल अंधियारी।
नहिं झनकार होत अनहद की नहिं पावत उनमुनि की तारी।
जहलों जीव ब्रह्म की रचना लागी काल-कर्म की बारी।
इहि सुभ-असुभ गत स्वासा वास आस गति मन की डारी।
जूड़ीराम शब्द गति दरसे है सतसंग विवेक विभारी।