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अवधपुरी में / प्रतिभा सक्सेना

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राज्याभिषेक के बाद शान्ति से बीत रहे वे दिन थे,
कौशल्या परम प्रसन्न वधू के चढ़े हुये दिन गिनते!
नेह-जतन में व्यस्त पौत्र-मुख देखें यही प्रतीक्षा,
सुख सुविधा सब मिलें वधू को उनकी यही परीक्षा!

बीत गये दुख के दिन अब वार्धक्य शान्तिमय होगा,
किलकारी-कलरव से यह सूना आँगन गूँजेगा!
आगत की कल्पना मात्र से वे पुलकित हो जातीं,
कितना सुख-सन्तोष खिल उठा है मुद्रा पर माँ की!

मुक्त-भाव से राम कह उठे थे विश्राम-भवन में,
"प्रिये पूर्ण कर लो इच्छायें जो उठती हों मन में!"
हँसी जानकी, "तुमको सुनकर बड़ी हँसी आयेगी,
तुम अति व्यस्त कामना कैसे पूरी हो पायेगी!"

"ऐसा क्या, जो जी-भर तुमको दे न सकूँ मैं रानी?
यह तो ऐसा अवसर, पूरी कर लो तुम मनमानी!"
यह अनादि आकाश गहन विस्तार वनों में पाता,
इन भवनो की काट-छाँट में सीमित हो बँट जाता!!

जी करता जा बसूं, जहां वन हो सरिता का तट हो,
मुक्त प्रकृति का प्यार वृक्ष-मालओं युक्त क्षितिज हो!
फूल तितलियाँ, गाते भौंरे, खग उड़ते कलरव कर,
बडी कामना उठती मन में जाने क्यों रह-रह कर!

ये उदास, पिंजरों में पंख न तोल सकें वे पक्षी,
मानव अपनी सुख-क्रीड़ा में पर-सुख का है भक्षी!
भोली चितवन वन-बालायें, पहन फूल के गहने,
चाह रही हूँ, जाऊँ उन रमणीय वनो में रहने!"

कह न सकी क्षिति-पुत्री का महलों में जी घबराता,
नाप-तोल के व्यवहारों में सहज नहीं रह पाता!
कह न सकी सब अर्थ बदल जाते हरेक की रुचि पर,
मुख-भंगी पर रखें चौकसी दास-दासियों के दल!

कहा नहीं दोहरे प्रतिमान, यहाँ भवनो में चलते,
जीवन का सच्चापन मिलता केवल साथ प्रकृति के!
"समय निकाल चलूँगा सीते, करने को वन-दर्शन,
तब तक मन बहलायेंगे ये अवधपुरी के उपवन!"

उर्मिला और श्रुतकीर्ति भवन में आईं, "तुमसे कितनी बातें करनी हैं, जीजी”!
कुछ अपनी कहना और तुम्हारी सुनना, कह-सुन कर मन हल्का करना है जीजी!
"लो, चली आ रही बहिन माँडवी भी तो, अब तो हम मिल, सारे दिन साथ रहेंगे,"
"दासियों, नहीं कुछ काम" कहा सीता ने, "जब आवश्यकता होगा बुलवा लेंगे!"

वे हँसती-रोती जातीं करती बातें, बीते प्रसंग कहती-सुनती-बतलातीं,
मिथिला की यादें अवधपुरी की चर्चा, अनुभव वन के, बातें लंका की आतीं!
स्वर्णिम लंका की चर्चा में लंकेश और मन्दोदरि की सुधि आई!
"कैसे थे वे दोनों?" बहनों की इच्छा मुख पर छाई!

"चित्राँकन करने में, हम सब पीछे हैं, जीजी तुम निपुण, तुरंत उर्मिला बोली!
माँडवी तूलिका फलक आदि ले आई, घेर कर बैठ गई बहिनों की टोली!
उस पट पर उग आया अशोक वन पूरा, ले पृष्ठभूमि रमणीय पर्वतोंवाली,
व्यक्तित्व भव्य, स्मृति में जगा पिता का, माँ सौम्यशील ममतामय नयनोंवाली!

'लंकेश पिता! मन विह्वल हो आया कुछ, फिर आँखें मूँदे लगी सोचने सीता,
किस मुद्रा में उनका स्वरूप अंकित हो? स्मृतियों में फिर जा भटकी शुभ-गीता!
क्रम से प्रदीप्त मुद्रा में शीश उठाये, उस चित्र फलक पर लगा शोभने रावण,
परिपक्व और पौरुष परिपूरित, स्नेहिल, मृदुता से पूरित, उज्ज्वल, प्रखर विलोचन!

गौरव-गरिमा से पूर्ण रची-मय कन्या, आभासित ममता-पूरित वह प्रिय चितवन!
कितनी-कितनी स्मृतियों में उतराता-डूबता रहा सीता का भावाकुल मन!
सौभाग्य-दीप्त माँ का वह मुख, कुछ व्यथा गर्व से पूरित सुख,
अब भी लगता है कभी-कभी, वे आकर बैठ गईं सम्मुख!

एकाकीपन में अनायास, आ जाते याद वही प्रिय स्वर,
साकार हो उठा हो वह पल जैसे सीता के मानस पर!
वे अंतरंग, मन की बातें, जिनमें अशोक वन की रातें,
गहरी अतृप्ति को शान्त कर रहीं, नयन स्नेह जल बरसाते!


"कितनी अनुरूप पूर्ण है इनकी जोडी" श्रुतकीर्ति, उर्मिला बोल उठीं अति विस्मित,
"मां-बाबा की स्मृति अनायास आ जाती, कुछ ऐसा भाव झलकता इनमें सचमुच!"
"जीजी कितनी समता है तुममें उनमें है वही सौम्यता और वही मुख-मुद्रा"
"बहिना, सच! यही पिता मेरे लंकापति, माता पटरानी मन्दोदरि मयकन्या,

उर्मिले, ढूँढ ही लिया उन्हें मैंनें पर, खो दिया सदा के लिये उन्हें फिर भी, हा!"
फिर धीर बँधाती बहिनों ने कुछ पूछा, फिर अश्रु बहाती सीता ने बतलाया!
तीनो ने जाना-बूझा समझ लिया सब, फिर चुप हो गईं किसी से कुछ न बताया!
चारों ही बहिने कंठ लगीं और रोईं, सारा का सारा दिन यों ही ढल गया!

सन्ध्या को राम, भवन में मुद-मन आये
देखा कि तूलिका-फलक धरे चौकी पर,
"चित्राँकन की रुचि हुई तुम्हारी सीते!"
कह पलट दिया, आवरण फलक का सत्वर!

कुछ देर देख, चुपचाप उठ गये राघव,
पाया हो जैसे बड़ा अरुचिकर अनुभव!
"आवश्यक था सीता, यह चित्र बनाना?
उनके प्रति मनकी कोमलता छलकाना?"

"मैनें तो उनका स्नेह-भाव ही पाया,
जैसा पाया था, वही व्यक्त कर डाला,
उनकी तो ममता तुम पर भी थी कितनी,
तुमने क्या केवल शत्रु-भाव ही पाला!

"माँ मन्दोदरि तो करती रहीं प्रतीक्षा
जामाता को अपने घर में पाने की,
सोने की लंका तुम पर वार रहीं थीं
कामना काश, उनकी पूरी हो पाती!"

कुछ कहा न मुख से, राम रहे बिल्कुल चुप,
लेकिन उनकी भृकुटियाँ कह रहीं थीं कुछ!
संध्या-वंदन की बेला झुक आई थी,
भंगिमा राम की थी थोड़ी-सी असहज थी!