अवसन्नता / निशांत-केतु / सुरेन्द्र ‘परिमल’
कैकई प्रसन्न आगमन जान
आरती हाथ, मुख मुदित गान।
-‘कुल कुशल क्षेम?’ हँ, ठीक-ठाक!
पर, कहाँ मात सब? कहाँ तात?
प्रिय राम-लखन के बोली नै!
भाभी सीता के रोली नै!
-”सन्नाटा यहाँ-वहाँ बढ़लोॅ,
सबके मस्तक चिंता चढ़लोॅ;
सुनसान महल कुछ बोले छै,
परिवेश विकल कुछ खोलै छै!
-‘तों ठाढ़ अकेली मुदिन मना
आरो सब केहनोॅ विकल मना?
गुरू-ज्ञान कहाँ? जल्दी बोलोॅ;
कुछ राज अगर छौं, तेॅ खोलौ।“
माता श्री कुछ मुरझैलोॅ रं,
भीतर सें कुछ सुलझैलोॅ रं,
कैकेई तब हिम्मत बाँधी कें;
बोलॅली मन में कुछ ठानी कें;
बेटा के पीठी पर राखि हाथ,
-”अब नै रहल्हौं राजा, अनाथ।
‘तों राज-मुकुट कॅ शीश धरोॅ
राजा के गद्दी तनय वरोॅ।’
-”दरबारी सब तोहरोॅ सहचर;
सब प्रजा यहाँ बनथोंॅ अनुचर।
ई सूझ मंथरा ज्ञानी के,
अधिकार बतैलकोॅ रानी कें।“
भरत सन्न, भीतर हलचल,
ज्यों हृदय बीच आगिन खलबल।
फोड़ा में पीव उफनलोॅ छै;
ई लाश चिता पर जललोॅ छै।
चेहरा पर फकफकी
आँख में चिनगारी
-”पिशाचनी ऊ, माता नै
जेकरोॅ भीतर कलुषित नारी।“
भरत विवश, हतप्रभ उदास,
कंपित तन छै, बढ़लोॅ उसाँस।
”हे तात! तात हा! कहाँ गेल्होॅ?
दुखिया कें काहे छोड़ि गेल्होॅ?“
‘कहि भरत भूमि पर गिरलोॅ छै।
आँखी में सबके लोर, विमूढ़ बनलोॅ छै।
अवसन्न कैकेई समझि भूल
गड़लोॅ छै भीतर विषम शूल।
आकुल जन, व्याकुल भरत वहाँ;
शोकाकुल नीरव शांति कहाँ!
विष सें भरलोॅ प्रहर, लहर विषमय छै।
‘वन-गमन राम’- कहना असमय छै।
राजा के अफसोस व्यर्थ,
ई बात कहै में हिचकै छै;
सब भोग-तृपत हुनकोॅ जीवन,
सच-सच बोलै से बिचकै छै।
शत्रुघ्न आँख आगिन दहकै;
माता के कुटिलाई पर फनकै।
आँधी मानस झकणेरै छै;
गोस्सा शरीर कें तोड़ै छै।
नासापुट फड़-फड़ काँपै छै;
हर साँस प्रलय के नापै छै।
तखन्हैं हुलसित मंथरा प्रवेश;
सज्जित-आभूषित, आकर्ष वेश।
शत्रुघ्न विचल, कर पग-प्रहार,
लुंठित मंथरा, मुँह भूमि-भार।
टुटलोॅ कूबड़ फुलटोॅ कपार,
रंजित धरणी, तन रक्त-धार।
-”प्रभु हाय! देखैल्होॅ दिन केहनोॅ!
करलोँ अच्छा, पैलोँ ऐहनोॅ!
सुनिकें है रं बात,
शत्रुघ्न के आक्रोश प्रखरता पर
”ऐ दुष्टा! कुटिला-नीच!“
-कहीं के तत्क्षण ओकरोॅ झोंटा कें धर।
भरत दया से आर्द्र।, मंथरा के छोड़वैलकै
-”भाई! एकरोॅ की दोष? ई ठीक बतैलकै।
-चेरी के कर्त्तव्य मालकिन के शुभचिंतन;
क्रोधोॅ के नै पात्र; दया के सदा अकिंचन।
-”छोड़ो, चलोॅ, जेठ माता के चरणोॅ में शिरनाय।
ई मनहूसी के कारण, हुनकोॅ सें पुछलोॅ जाय।“
कौशल्या के आँखी सें अविरल आँसू के धार।
उड़लॉे रंग, व्याकुल, दुःख-बोझिल,
पड़लोॅ पाला मार।
सरल स्वभाव के मूरत ने
भरत कें गला लगैलकै।
शत्रुघ्न कें भी स्नेहिल कर सें
आपनोॅ हृदय सटैलकै।
-”हे वत्स! परीक्षा के विषम घड़ी अयलोॅ छै
जे ऐहनोॅ आपत-विपत भाग्य चढ़लोॅ छै।
-”राम, लखन, सिय वन गैल्हौं,
पर हमरोॅ प्राण निठुर रहल्हौं।
-‘तों तात-मृत्यु के धन्न मानोॅ
हमरोॅ दिल कें पत्थर जानो।
-”हे सुत, तों निश्छल अति स्नेही
गुणमय विवेक पावन देही।“
आँखी सें अविरल लोर बहै,
निस्तब्ध वहाँ सब लेाग रहै।
आकाश-धरा दोनों कानै
विधना के रचलोॅ के जानै।