अवसर आये जब सावन के / सरोज मिश्र
अवसर आये जब सावन के, खोले तुमने द्वार नहीं!
या तो बंजर की माटी हो या फिर तुमको प्यास नहीं!
घटनाओं का हर पुस्तक में,
होता एक अनोखा हिस्सा!
हिस्सा यही अनोखा शायद,
उस पुस्तक का पूरा किस्सा!
तो किस्से में सबको अपना,
अपना है किरदार निभाना!
बेमानी बस कथाकार पे,
सुखद अन्त की शर्त लगाना!
जो छाया के सुख से निकले बैठे महल दुमहलों में,
जिन्हें धूप से भय था उनको अंगुल भर आकाश नहीं!
या तो बंजर की माटी हो या फिर तुमको प्यास नहीं!
देखो ऊँचे नभ पर उड़ता,
छोटा-सा वह श्वेत कबूतर!
नील गगन पंजों में जिसके,
मुठ्ठी में है सूरज का घर!
क्या उसने ये पाया सब कुछ,
इंगित आहट अंदाजों से!
नहीं नहीं जीता है उसने,
पंख उड़ानों परवाज़ों से!
आज बहारों में खोए जो उनको पाठ पढ़ा दो ये!
पतझर का भी क्रम निश्चित है, हर मौसम मधुमास नहीं!
अवसर आया जब सावन का, खोले तुमने द्वार नही!
या तो बंजर की माटी हो या फिर तुमको प्यास नहीं!