भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अवसादों के पार / प्रदीप शुक्ल
Kavita Kosh से
उदासीन
लम्हों का मुँह
कुछ उतरा-उतरा है
अभी यहाँ से बच्चा कोई
हँस कर गुज़रा है
सुना नहीं
तुमने क्या
जब ये हवा खिलखिलाई
प्यार भरी बदली थोड़ा-सा
पास खिसक आई
सन्नाटे का मौन तोड़ कर
कलरव बिखरा है
खिड़की खोलो
बाहर झाँको
रंगों को देखो
नई डाल पर बैठी
नई उमंगों को देखो
अवसादों के पार, ख़ुशी का
आलम पसरा है