अवसाद के दिन और उसके बाद / गौरव गुप्ता
उनींदीं आंखों में
जैसे किसी ने राख मल दी हो
एक लंबी नींद जैसे सदियों पुरानी बात लगती है।
इन दिनों
जैसे सीने को धर दबोचा है
किसी भेड़िए के पंजे ने
गर्दन पर लटकती रहती है हर वक्त एक अदृश्य तलवार
वक़्त-ब-वक़्त गला सूखने लगता है
पुकारना चाहता हूँ मदद के लिए जोर से
गले से निकलती है
घिघियाती बिल्ली-सी आवाज़
एक युद्ध जैसे हर वक्त लड़ रहा हूँ मैं
मेरा कमरा मेरा बंकर जान पड़ता है
बाहर से भागकर छिप जाता हूँ
अब मैं यहाँ हर हमले से सुरक्षित हूँ
दिमाग में बजती रहती है हर वक्त
मधुमक्खी की भिनभिनाहट
दरवाज़े पर टांग दिया है एक नोट-
'यहाँ अब कोई नहीं रहता'
मेज़ पर दवाइयों की ढेर है
शराब से गटकता हूँ गोली
और नींद का इंतज़ार करता हूँ
पहला विश्वास प्रेमिका पर किया,
फिर दवाइयों पर,
फिर दुआओं पर,
पर वही धोखा हर बार की तरह।
रोशनी चुभती है
अंधेरा डराता है
भीड़ पसन्द नहीं मुझे
अकेलापन काटने दौड़ता है
अपने ही दिल की आवाज़ सुनता हूँ,
नसों में दौड़ते खून को महसूस करता हूँ।
न जाने वह कौन है जो मुझे बार-बार घसीटता है मृत्यु के दरवाज़े पर
उससे अपना हाथ छुड़ा मैं भागता फिरता हूँ
आईने के सामने घण्टों बैठ चिल्लाता हूँ
मैं ठीक हूँ, मैं ठीक हूँ, मैं ठीक हूँ
पर यह सब कुछ कहाँ खो जाता है?
और मैं हर बार बिस्तर पकड़ लेता हूँ