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अवसाद / कुमार मुकुल
Kavita Kosh से
अब आईना ही घूरता है मुझे
और पार देखता है मेरे तो शून्य नजर आता है
शून्य में चलती है धूप की विराट नाव
पर अब वह चांदनी की उज्जवल नदी में नहीं बदलती
चांद की हंसिए सी धार अब रेतती है स्वप्न
और धवल चांदनी में शमशानों की राखपुती देह
अकडती चली जाती है
जहां खडखडाता है दुख पीपल के प्रेत सा
अडभंगी घजा लिए
आता है जाता है कि चीखती है आशा की प्रेतनी
सफेद जटा फैलाए हू हू हू हा हा हा आ आ आ
हतवाक दिशाए सिरा जाती हैं अंतत: सिरहाने मेरे ही
मेरे ही कंधों चढ धांगता है मुझे ही
समय का सर्वग्रासी कबंध
कि पुकार मेरे भीतर की तोडती है दम मेरे भीतर ही … ।