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अवाक है अस्तित्व / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
एक दर्दनाक चीख
आसमान को बेधती चली गई
चेहरे पर सुलग उठी
कई मन लकड़ियों की चिता
जिसमें चेहरा तो जला ही
साथ ही जल गए अरमान
रंग भरे इंतजार
अभी सुबह ही तो सजाया था चेहरा
काजल बिंदी से
नहीं जानती थी
आईने में उसका अक्स
यह अंतिम होगा
कुछ ही पलों में आईना
उसे देखने से इंकार कर देगा
छिन गया था
सतरंगी सपनों का संसार
बिना पतवार की नाव पर
वह हिचकोले खा रही थी
अम्ल घात के अंधेरों में
वह चीख
किस नस्ल की देन थी
खरपतवार सी बढ़ रही
इस नस्ल ने
परिभाषा बदल दी
मानवता की
अवाक है अस्तित्व स्त्री का