भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अविरल क्रम / शशि पाधा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भोगा न था चिर सुख मैंने
और न झेला चिर दुख मैंने,
संग रहा जीवन में मेरे
सुख और दुख का अविरल क्रम
कभी विषम था कभी था सम।

किसी मोड़ पर चलते चलते
पीड़ा मुझको आन मिली
आँचल में भर अश्रु मेरे
संग-संग मेरे रात जगी

हुआ था मुझको मरूथल में क्यूँ
सागर की लहरों का भ्रम
शायद वो था दुख का क्रम।

कभी दिवस का सोना घोला
पहना और इतराई मैं
और कभी चाँदी की झाँझर
चाँद से ले कर आई मैं

पवन हिंडोले बैठ के मनवा
गाता था मीठी सरगम
जीवन का वो स्वर्णिम क्रम।

पूनो और अमावस का
हर पल था आभास मुझे
छाया के संग धूप भी होगी
कुछ तो है अहसास मुझे

जिन अँखियों से हास छलकता
कोरों में वो रहती नम
समरस है जीवन का क्रम।