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अव्याख्येय / राकेश पाठक

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पर्दें में स्त्री की प्रतिमाएं थी.
पर उसकी आँखों में दहकते अंगारे
रक्त से सनी लालसाएं
उसकी आँखों से बह रही थी !
माथे पर दहकते हुए लाल सिंदूर
किसी आतातायी के जुल्म के नाम थे !
उन आंखों में मूर्त हुई अंगारों की बिंदियां
उसी पतित पावन गंगा में बुझा दी गयी थी !
देह की मछलियाँ निस्तेज थी
मंद था मन में गुनगुनाया हुआ संगीत
चुप-चुप सा आसमान आंखों से बरस रहा था
मृत्यु ने बदल लिया था इस चेहरे का रूप
उधर मौन हो ब्रह्मांड
किसी नयी स्त्री के जनन की पटकथा लिखने लगी थी पुनश्च !
स्त्री आज पुनः अव्याख्येय रह गयी श्री !