अशर्फी और मृत्यु / गौरव पाण्डेय
पलकें सूख चुकी हैं
मटर की फलियों की तरह
और पुतलियाँ कभी-कभी हिलती महसूस होती हैं
जरा सी
बीच-बीच में रह-रह कर
गले से फूटने लगती है "घों घों" की आवाज
अकड़ रहे हैं
मृत्यु से लड़ रहे हैं
अशर्फी !
संभव है मृत्यु चढ़ बैठी हो छाती पर
दबा लिया हो गला
और अशर्फी बुलाना चाह रहे हों किसी को मदद के लिए
लेकिन ये आवाज अशर्फी की नहीं
ऐसे कभी नहीं बोले वे नहीं चित्त हुए इस तरह
अखाड़े में चार-चार पहलवान पटके हैं एक साथ उन्होंने
उनके एक-एक दांव का कोई तोड़ नहीं
चुस्ती-फुर्ती का जोड़ नहीं
अब तक गाँव-गिरांव में अपराजेय रहे हैं अशर्फी
जब वे गाँव से निकल कर दहाड़ते
बाग-बगीचे, कुँए-तालाब एक साथ गूँज उठते
गूँज उठती फसलें
चीं ~चीं ~चूं ~चूं ~चेहेंव ~चेहेंव~
खर-खर खर-भर सर्र सरर-सरर
खाली हो जाता एक दहाड़ में पूरा का पूरा मैदान
खेत-खलिहान
जाड़े की रातों में पहरा लगाते
'सोअवत जागत राह्ह्हेएव... सोवत जागत~~
यह आवाज सुनकर आश्वस्ति भरी नींद में डूब जाता गाँव
लोग कहते हैं
यही है असली देशी घी का दम
गुड़ और गन्ना अशर्फी की पहली पसंद
आल्हा उनका प्रिय राग
अशर्फी की आवाज आवाज नहीं एक ललकार है
फिर उनके गले से फूटती "घों घों " की आवाज
किसकी है??
संभव है इस बार मृत्यु किसी पछी का रूप धरकर आई हो
और चुंगने लगी हो
जीवन के बचे कुछ आखरी दाने
और अशर्फी पूरा जोर लगाकर उसे हड़ाना चाहते हों
किसी जंगली पशु की तरह
वे मृत्यु को खदेड़ चुके हैं पहले भी कई बार
लेकिन इस बार कुछ ज्यादा ही ऐंठ रही है देह
पैर चल रहें हैं ज्यादा ही
शायद अंतिम दांव लगा रहे हैं
एक बार और चित्त करने के लिए
एक पटकनी देने के लिए
मृत्यु से लड़ रहे हैं
अशर्फी
ऐंठन और आवाज कम हो रही रही है
कम हो रही है पैरों की चाल
हम मौन खड़े हैं गुड़-पानी लिए
यह सोचकर कि अशर्फी अपराजेय हैं
और ये "घों घों" की आवाज
अशर्फी की नहीं
मृत्यु की है ।