अशोक वाजपेयी की एक कविता सुनकर / रणजीत
कुछ लोग जो मुझसे ज्यादा सफल हुए
ज्यादा मान्य, ज्यादा प्रसिद्ध
ज्यादा ऊंचे पदों तक पहुँचे
ज्यादा सम्मानित किये गये
नजदीक पहुंचे कुछ ज्यादा बड़े लोगों के
ज्यादा बार छपे स्तरीय पत्रिकाओं में
ज्यादा भाषाओं में अनूदित किये गये
उन पर तरस आया आज पहली बार
बिचारों से कुछ ज्यादा ही कीमत
वसूल कर ली इन उपलब्धियों ने
मैं जिन्हें समझ रहा था
अपने से ज्यादा भाग्यशाली
मुझसे कम ही कर पाये अपने जीवन से प्राप्त।
नहीं तो क्यों करनी पड़ती उन्हें
अपने आखिरी दौर में यह प्रार्थना :
‘एक जीवन ऐसा भी दो प्रभु !
तन कर खड़े रह सकें जिसमें
बिना घुटने टेके।’
अफसोस भी हुआ यह सोचकर
कि इतनी सी बात के लिए बिचारों को
लेना पड़ेगा दूसरा जन्म
क्योंकि यह तो वे सहज ही कर सकते थे
इस जन्म में भी-
बस लोभ थोड़ा कम रखते
और आत्मसम्मान ज्यादा।