अश्क बन कर के निकलता क्यों है
दर्द ये क़ल्ब में पलता क्यों है
जबकि फ़ानी है जहां की हर चीज़
फिर ये इंसान मचलता क्यों है
कोई तो है जो बचाता हैं उसे
वर्ना वो गिर के सभलता क्यों है
तुम न समझे की दिया मिटटी का
तेज़ आंन्धी में भी जलता क्यों है
जान बाकी न हो दीपक में तो फिर
ये धुवाँ उससे निकलता क्यों है
वो जो आता है मुहाफ़िज़ बन कर
वो दरिन्दे में बदलता क्यों है