अश्रु-सरिता के किनारे / प्रतिभा सक्सेना
अश्रु-सरिता के किनारे एक ऐसा फूल है
जो कभी कुम्हलाता नहीं है!
दूर उन सुनसान जीवन-घाटियों के बीच की अनजान सी गरहाइयों में,
कहीं पत्थर भरे ऊँचे पर्वतों के बीच में,
नैराश्य के तम से भरी तन्हाइयों में
गन्ध-व्याकुल हो पवन-झोंके जिसे छू,
झूमते-से जब कभी इस ओर आते,
कोकिला सी कूक उठती है हृदय की हूक,
जीवन की पड़ी वीरान सी अमराइयों में।
उस अरूप, अशब्द अद्भुत गंध का संधान पाने,
अनवरत ऋतुयें भटकतीं,
कूल मिल पाता नहीं है!
हर निमिष चलता कि जिसको खोजने,
पर लौट कर वापस कभी आने न पाता,
है बहुत सुनसान दुर्गम राह जिसकी,
काल का अनिवार कर दुलरा न पाता,
बिखर जाते बिम्ब मानस की लहर में,
रूप ओझल भी न होता, व्यक्त भी होने न पाता,
चाँद-सूरज, झाँक पाने में रहे असफल सदा ही,
विश्व की वह वायु छू पाती नहीं
इस मृत्तिका की गोद में वह टूट झर जाता नहीं है।
एक दिन जिस बीज को बोया गया था,
कहीं दुनिया की नज़र से दूर अंतर के विजन में,
चिर-विरह के पंक में अंकुर जगे,
चुपचाप ही रह कर न जाने कौन क्षण में,
वह कुमारी साध थी जिसने
उमंगों को गलाकर रंग भरे थे,
अब वही सौरभ कसक भरता मधुर
इस सृष्टि के परमाणुओं के हर मिलन में,
वे अमाप, अगम्य, घन गहराइयाँ रखतीं सँजो कर,
और उसके लिये सच है ये,
समय की लहर से उसका कभी भी रंग धुल पाता नहीं है!