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अश्रु का सिंचन न कर / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
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मरूथलों में अश्रु का सिंचन न कर।
उपल पर नवनीत का लेपन न कर।
कर सतत चिन्तन चिरका यहाँ,
अचिर जग का व्यर्थ में चिन्तन न कर।
साधु-सा है वृक्ष इससे ज्ञान ले,
रे मनुज ! बन-बाग का कर्तन न कर।
धर्म ! तू आ मर्म निज कहता न क्यों ?
और मानव का यहाँ विघटन न कर।
टूटने का डर अगर दर्पण ! तुझे
मौन रह, तो सत्य उद्रघाटन न कर।
सृजन कर प्र्यावरण का अतिमधुर,
ध्वंस धर्मा अग्नि का सर्जन न कर।
हो चुकी कृषकाय पहले ही बहुत,
मनुजता का और उत्पीड़न न कर।
बरसना है यदि धराहित तो बरस,
रे जलद ! तू व्यर्थ का गर्जन न कर।
पीर के अन्तिम शिखर पर प्राण हैं
चाँदनी ! अब और तू नर्तन न कर।