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अश्रु मेरे धित अभागे / आकृति विज्ञा 'अर्पण'

अश्रु मेरे धित् अभागे,
ढूँढते दु:ख का निलय।
दृष्टि शर कुछ घूरते नित,
हाय मेरे नैन द्वय...

जग ये मुझसे मांगता है, भावसागर का पता।
रह रहे मन में जो मेरे 'राधा नागर'का पता ।
चैत की धरती मैं सूखी, अश्रु बनते भाप मेरे।
भीगते गुलदान चाहें ,मुझसे बादर का पता।

मेघ भेजो दूत री!
उत्तरों की वृष्टि को,
पत्र में लिखते प्रलय
स्याह! मेरे नैन द्वय...

जिस जगत को नैन भरके ,मैं सदा थी देखती ।
आंख में थी जिस जगत के ,इक दुलारी रेख सी।
स्वर्ण बिंदी-सी छपी थी, मैं सभी के भाल पर।
जिस जगत की भाव भूमि ,पर छपे आलेख-सी ।

शूल-सी कातर हुयी,
उस जगत का सामना,
कर ना पायी आज मैं।
आह! मेरे नैन द्वय...

जब स्वयं के अश्रु हैं, खारा कहें किससे कहें?
सब कहानी भूलकर ,अब चैन से कैसे रहें
आत्मा वैधव्य में है जग समूचा उत्सवित
राह निर्विकल्प है ये, निर्वहन जैसे करें।

जंग का खाया हुआ
एक कजरौटा लिये,
दीप जलते स्वर्णमय।
वाह !मेरे नैन द्वय...