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अषाढ़ के मेघ / गौतम-तिरिया / मुचकुन्द शर्मा
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अषाढ़ के मेघ जब चढ़ल
नदी नाला देखते देखते बढ़ल
कजरौटी के काजर सन कार
आ रहल हें कैने अन्हार
सुक्खल धरती के भरत
घर-बाहर में ई खूब परत
पुरबैया अलगे हे सहकल
अषाढ़ी बादल हे बहकल
ओलती से चलो लगग धार
जाम कैसे नदिया के पार
नगर डगर सगरो तो पिच्छुल हे
बजो लगल घटा फौज बिगुल हे
लतापेड़ पत्ता झकझोरो है
छोटका बुतरूआ ठोरमठोरो है
छाती फाड़को ई गरजो है
बाहर निकले में ई बरजो है
देखलों हम बड़का एकर ठाट है
कत्ते के उजड़ल भी टाट है
उड़ो लगल काला पहाड़ हे
धरती के गरम अँखुआवे हे
नइकी चिरैंआ पँखुआवे हे।