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अष्टादश प्रकरण / श्लोक 11-20 / मृदुल कीर्ति

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निर्विकल्पी आत्मयोगी, न राग न अपनत्व है,
लाभ, हानि, राज्य , भिक्षा, वृति वन में समत्व है.---११

कहाँ धर्म, काम, विवेक अर्थ हैं, मुक्त योगी के लिए,
कर्म और अकर्म के द्वंद से, मुक्त हैं जिनके हिये.-----१२

कर्तव्य कर्म निःशेष, जीवन मुक्त जो योगी महा,
निःस्पृह , वियोगी, राग बिन, निःस्वार्थ कृत करता यहाँ .------१३

विश्रांत योगी के लिए, कत मोह कत संसार है,
संकल्प, मुक्ति, ध्यान सब, निःशेष जग निःसार है.------१४

जगत दृष्टा ही कहेगा कि जगत निःसार है,
आत्म दृष्टा देख कर भी देखता बस सार है.-------१५

देखा है मैंने ब्रह्म, यह तो द्वैत भाव की व्यंजना ,
मैं स्वयं ही 'ब्रह्म' सत्य अद्वैत की अभिव्यंजना-----१६

सर्वोच्च स्थिति आत्म ज्ञान में, आत्मा ही शेष है,
विक्षेप मन चित देह और संसार के निःशेष है.------१७

आत्म ज्ञानी जग में रहकर , मानता नहीं गेह है,
विक्षेप और बंधन नहीं, और देह में भी विदेह है.-----१८

कोई अहम नहीं कामना, करे कर्म पर निर्लिप्त है,
भाव और अभाव विहीन, उसका मन सदा ही तृप्त है.-----१९

प्रवृति निवृति में दुराग्रह, धीर जन रखते नहीं,
जो कर्म भी करना पड़ा, सुख से करें हटते नहीं.-----२०