अष्टादश प्रकरण / श्लोक 41-50 / मृदुल कीर्ति
अष्टावक्र उवाचः
उनको नहीं सुख शान्ति, चित्त जो रोकते हठ योग से,
आत्म रमणी , सहज संयम, शान्ति सत्य प्रयोग से.----४१
भाव रूप है ब्रह्म तो, कोई कहता कुछ नहीं,
कोई दोनों पक्ष मन, निरपेक्ष माने सैट मही.-----४२
दुर्बुद्धि जन अद्वैत भाव का, मात्र ही चिंतन करें,
पर्यंत जीवन शान्ति सुख से, हीन वे यापन करें.----४३
जन मुमुक्ष की बुद्धि तो, अबलम्ब बिन रहती नहीं,
मुक्त जन निष्काम, बिन अबलम्ब रहते हर कहीं.----४४
विषय रूपी ब्याग्र से, भय भीत हो जग छोड़ते,
मूढ़, गूढ़ निगूढ़ , मर्म की ओर मन नहीं मोड़ते.-----४५
वासना से हीन जन, वे सिंह सम महिमा मही,
विषय रूपी वीर किन्नर, स्वयम नम होते नहीं.-----४६
सूंघता, स्पर्श, सुनता देखता खाता हुआ,
कर्म निश्चय, भाव निश्छल, ज्ञानी का करता हुआ-----४७
शुद्ध, बुद्धि, स्वस्थ चित मन, युक्त व्यक्ति यथार्थ को,
श्रवण से ही ग्रहण, उनके विरक्त भाव पदार्थ को.------४८
हैं शुभ अशुभ, प्रारब्ध वश, आगत रहित हो कर्म को,
ज्ञानी करे सब बालवत, बिन राग द्वेष स्व धर्म को -----४९
राग द्वेष विमुक्त चित मन, सर्वथा ही स्वतंत्र है,
ज्ञान, नित सुख, परम पद स्व पर विरल, स्व तंत्र है.----५०