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असंभव छवि की तरह / नीलोत्पल
Kavita Kosh से
सारी घाटियां, उड़ रही हैं पतंगों की तरह ...
तुम्हारी गर्म हथेलियां चिपकी हैं
एक ठंडे पहाड़ से
भाप की तरह है
तुम्हारा नदी की सतह से उठना
जिसने स्थगित कर दिया सुबह को
मैं गीले कोहरे में
तुम्हारी छाती में दबी इच्छाओं की ओर जाता हूं
जैसे कि मैं नहीं जानता
बर्फ़ के एक टुकड़े में
जमा हैं कितनी बूंदे
कुछ तितलियां
जिन्हें मुश्किल है छुना
तुम वहां हो
तुम्हारी आंखों में दिखते हैं तैरते बादल
एक-एक कर मैं उनमें उतरता हूं
जैसे सारी तितलियां बन गई हैं लहरें
और तुम एक अनजान बारिश
घाट की कुछ सीढियां डूबी हुई हैं
फिर भी दिखते हैं तुम्हारे पैरों के निशान
लहरों की सम्पूर्ण गोलाईयों में
उभारा है तुमने चित्र मेरा
असंभव छवि की तरह