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असंवाद की एक रात / लवली गोस्वामी

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जितनी नमी है तुम्हारे भीतर
उतने कदम नापती हूँ मैं पानी के ऊपर
जितना पत्थर है तुम्हारे अन्दर
उतना तराशती हूँ अपना मन

किसी समय के पास संवाद बहुत होते हैं
लेकिन उनका कोई अर्थ नहीं होता
जब अर्थ अनगिनत दिशाओं में बहते हैं
बात बेमानी हो जाती है

इच्छाओं की जो हरी पत्तियाँ असमय झरीं
वे गलीं , मन के भीतर ही, अपनी ही जड़ों के पास
खाद पाकर अबकी जो इच्छाएँ फलीं
वे अधिक घनेरी थीं , इनकी बाढ़ (वृद्धि )भी
गुज़िश्ता इच्छाओं से अधिक चीमड़ थी

कुछ स्मृतियों से बहुत सारे निष्कर्ष निकालती आज मैं
आदिहीन स्मृतियों और अंतहीन निष्कर्षों के बीच खड़ी हूँ

तुम्हारा आना सूरज का उगना नहीं रहा कभी
तुम हमेशा गहराती रातों में कंदील की धीमी लय बनकर आये
तुमसे बेहतर कोई नहीं जानता था
कि मुझे चौंधियाती रौशनियाँ पसंद नहीं हैं

चुप्पियों के कई लबादे ओढ़ कर अलाव तापने बैठी है रौशनी
अँधेरे इन दिनों खोह की मिट्टी हवा में उलीच रहे हैं

मेरा अंधियारों में गुम हो जाना आसान था
तुम्हारी काया थी जो अंधकार में
दीपक की लौ की तरह झिलमिलाती थी
तुम्हारी उपस्थिति में मुझे कोई भी पढ़ सकता था

हम उस चिठ्ठी को बार-बार पढ़ते हैं
जिसमें वह नहीं लिखा होता
जो हम पढना चाहते थे

क्षमाओं की प्रार्थना
अपने सबसे सुन्दर रूप में कविता है
भले ही आप गुनाहों में शामिल न हों।