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असभ्य आदिम गीत / विजय बहादुर सिंह

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देह की सुडौल भाषा और रूप की जादुई लिपि के इलाके में
आज भी पुश्तैनी बाशिन्दे की तरह दर्ज़ है उसकी उपस्थिति
शामिल है वह उसके चंचल बचपन और अल्हड़ कैशोर्य में
मादक जवानी की तूफ़ानी लहरों में
झलक-झलक जाती है आज भी उसकी प्रार्थना की विषादग्रस्त परछाईं
छितर-छितर जाती है तट तक आकर उसकी प्यास
फिर भी कहाँ उठी निगाह। खिल सके कहाँ सपनों के फूल।

तरंगित हिलकोरों में सुनते हुए आवाज़ों का मन्मथ-संगीत
बार-बार लौटना ही पड़ा उसे
मांसल छरहरेपन की श्यामल छाँह से ।

शालीनता की हठीली ज़िद के भारी बोझ तले
दबी-दबी सी क्यों रहती आई है आदिम इच्छा की उठान
क्यों अटकी-भटकी रहती है दुविधा और असमंजस में-- उधेड़बुन
खोया-खोया रहता आया है क्यों
आत्मा का निसर्ग गीत
संशय की चौखट पर बीत क्यों जाती है उम्र।

हरे-भरे तट की ख़ामोशी आख़िर क्यों है इतनी सघनतर
क्यों व्यापी रहती है इतनी निचाट निर्जनता
डरे-डरे अक्सर रहा करते हैं क्यों
आधी रात के सपने
तल से अतल तक गूँजा करता है विहाग-संगीत
अनगाए गीत की टूटी-बिखरी लय की तरह
क्यों बिखरी फैली रहती है अंतरंगता
सकुचे-सहमे
वातावरण के संशय समारोह में
क्यों चीख़ा करता है उसका अकेलापन

सभ्यता की ऎसी अलंघ्य ऊँचाईयों के बावजूद
बचे फिर भी क्यों हुए हैं उसके आदिम आवेग
उद्गार की असभ्य भाषा बची रह गई है क्योंकर...।