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असमंजस का अंत / सरोज परमार

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धूप-छाँव.पुराने घाव
नाप-जोख
उलझन,तड़पन
घोर द्वद्व के फन्द
बार-बार मन डोला कितना था
हानि लाभ से ऊपर उठकर
हाँ,कहीं
हाँ कहने से नकारात्मक ऊर्जा को
धकियाया
कुछ स्वीकारा,कुछ झुठलाया
कुछ हार गयी,जीती थोड़ा ।
हाँ कहना मुश्किल लगता था
पर हाँ कहीं
अंतस के इक कोने में
गुड़मुड़ा रहा था 'नहीं'
कभी कभी उछल कभी भुरभुरा
रहा था 'नहीं'
नहीं का वर्चस्व मिटाकर 'हाँ' कही
अंतस में ताकत महकाकर
हाँ कहीं
फिर दसों दिशाओं में
उड़ने लगी थी फाँहताए
और आँगन नहा गया था धूप से