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असमर्थ दृष्टियाँ : सबसे बड़ी बात / शलभ श्रीराम सिंह

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अद्भुत है यह
चिड़ियों को चहकते
और
बच्चों को खेलते हुए देखना !
अपने हाथों
जमीन खोदकर
पेड़ लगाना !
मित्र को
उसकी प्रिया के साथ गाना और जीना !
और पहले यह महसूस करना :
कितनाऽऽऽ बड़ा है यह आकाश !
आदमी....आऽऽऽऽदमी जिसके नीचे
तनकर खड़ा है !
चिन्तन भी एक परिधि स्वीकारने को बाध्य है !
कहाँऽऽऽ विस्तारता है अपने को आखिर यह आकाश !
कितनाऽऽऽबड़ा है...कितना बड़ा है यह !
मात्र अणु के समक्ष विज्ञान बिखर कर रह गया !

हमारा बोलना
किसी कारखाने के
चलते रहने की सूचना मात्र है
या फिर
लोहे के ग़ुलामों को
जोत रक्खा है हमने अपने गाड़ी में !
जो किसी भी क्षण
अपनी स्वतंत्रता का स्वप्न देख सकते हैं !
बर्फ के समुद्र में
न जाने कहाँ होंगे हम !
उफ़ ! डाऽऽयनाऽऽ सोर्स......!
कितना आलसी था !

रंगों के पार
देखने में
असमर्थ हैं हमारी दृष्टियाँ !
कितने खुश हैं हम
चिड़ियों को चहकते
और
बच्चों को खेलते हुए देख कर !

खुश रहना बड़ी बात है !
जमीन खोद कर पेड़ लगाना
शायद इस से भी बड़ी बात है !
दूसरों का सुख जीना
और भी बड़ी बात है !
और
पहले पहल कुछ महसूस करना
सबसे बड़ी बात है !
(1965)