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असहाय / नीरजा हेमेन्द्र
Kavita Kosh से
मन की आशाओं के साथ
सूर्य उदित होता है
मेरी आँखें चौंधियाँ जातीं हैं
अँधेरे की अभ्यस्त हो चुकी
आँखों पर मैं
हथेलियाँ रख देती हूँ
शनैः-शनैः सूर्य ऊपर उठ आता है
मैं उठ कर झीना-सा परदा
सरका देती हूँ
किरणें फुदक कर कमरे में आ जातीं हैं
मैं दानों बाहें फैला कर/ उनको निकट आने का
आमंत्रण देती हूँ
प्रतीक्षा करती हूँ उनकी
अपने निकट आने की
किरणों से भर जाता है/सम्पूर्ण कक्ष
मैं करती हूँ प्रयत्न/ उनको अपनी नन्ही मुट्ठियों में भर लेने का
किन्तु किरणों को मुट्ठी में /नही भर पाती
थक कर बैठ जाती हूँ
विस्मित् नेत्रों से/उनको देखती हूँ।