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असाध्य रोग / शारदा झा

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सुनने रही
नै छै असाध्य किछुओ
मनुखक हाथ आ ईश्वरक संग
एकहि भ' जाइत अछि
मुदा बुझाइत अछि
छल ओ किवदन्ती
सत्यक लेष मात्र
कहाँ देखना जाइत अछि
भसियेने जा रहल
चेतना आ पौरुष केँ
एक निर्मम रोग
कातर भेल निरीह बनल
मनुख भेल जा रहल अछि
निष्प्राण
स्पंदन आ स्फुरनक नहि अछि
कोनोटा चेन्ह बाकी
आत्मरति मे लिप्त
अपन सरोकार सँ बेसीक खगता ककरा छै
ककरो नहि
समाज आ विश्व जाओ चूल्हि मे
छथि ओ प्रसन्न मुदा
की हेतन्हि हुनका बुते
असगरुआ अपने लेखे बताह
किछु नहि बदलतै
ओ हाथ किए डोलाबथु
भने रोगी छैथ
छैथ दियामान
सेबने अपन अभिमान
मुदा नै छनि भान
एड्स सँ बेसी छै रफ़्तार एकर
संक्रमण पसरल समुच्चा समाज मे
आ सबसँ घातक
अपनहि घर मे
मुँह नुकओने
आ मुनने आँखि
के क' सकल अछि सामना
ज्वलन्त सामाजिक सरोकारक
एहेन प्रश्नक
जकर उत्तर दैत अपने सन्तति सब
जाएत झमारल आ डेरायल
भविष्यक बीजारोपण हमहिं कैल
से बोध के कराओत
खोलहि पड़तै अपन आत्माक द्वार
स्वलीन हेबाक रोग सँ
मुक्तिक बाट ताकू
नहि त
विलम्ब होयबाक मे
आब विलम्ब नहि