भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

असामान्यता / रंजना जायसवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धूल-धूसरित पेड़ों को देखकर
जी चाहता है
धो दूँ उनकी एक-एक पत्ती
झाड़-झंखाड़ जैसे बालों वाली
मैली-कुचैली बच्चियों को देखकर
जी चाहता है
रगड़-रगड़कर नहलाऊँ
सँवार दूँ उनके रूखे केश
मित्रों से बतियाते
जी चाहता है
अदृश्य चुंबक से खींच लूँ
उनका काइयांपन
रंगी-पुती, अधनंगी स्त्रियॉं को देखकर
जी चाहता है
तोड़ दूँ उनका भरम
मेरे मित्र कहते हैं
मैं असामान्य हो रही हूँ