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असूर्यम्पश्या / प्रतिपदा / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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दिनक चरण-ध्वनि दूरहिसँ सुनि तारा होथि इरोत तुरन्त
ने मुह सकथि निहारि बाल अरुणहक कुमुदिनी कोमल-बृन्त।।1।।
स्पर्श मात्रसँ लजबिज्जी संकुचित - गात्र बन आङन तग
नैश बिन्दु ई पत्र - पतित उड़ि जाइछ अपनहि किरण प्रसंग।।2।।
रजनी - गन्धा सुरभि भारसँ मह - मह करइत गृह उद्यान
ककरहु वासित कर’क हेतु झरि जाइछ रातिहिमे अनजान।।3।।
भू-गर्भक ई रत्न, खानिमे युग-युगसँ भय रहल अलभ्य
किरण नयन-कोणहुसँ देखि न सकथि भानु, जँ छथि न असभ्य।।4।।
प्रतिदिन तरुण अरुण खिड़कीसँ ताकथि, असफल फीरथि ऊबि
झंझा वातायनसँ निहुरथि अंचल छाया सकथि न छूबि।।5।।
केहन रस! जकरा राख’क हित नारिकेल सम्पुटित विधान
मूर्ति केहेन? दर्शनहुक हित संसार बनल अस्पृश्य प्रमाण।।6।।
कल्पित रूप, गन्धसँ घोषित युग - युगसँ आकर्षण - बिन्दु
उपमित कुसमित लता अंगसँ कान्तिक समतामे लघु इन्दु।।7।।
किन्तु स्वयं ई सिङरहार झरइत कहि जाइछ अपन कथा
ई अदृश्य प्रेयसी सुनाबय अश्रुक कणसँ अपन व्यथा।।8।।
छवि नहि आँकह हमर गगन - पट, ने हम चन्द्रिकाक रुचि रूप
हमहुँ भूतलेपर उपजलि छी जल पिबैत भू - गर्भक कूप।।9।।
कारामे बन्दी सुन्दरता, ने ई दण्डिक अर्जित भाव
हम प्रतीक नहि स्थायी भावक, हमरामे संचित अनुभाव।।10।।