अस्तव्यस्त में / मोहन राणा
इन डिब्बों में एक लंबा अंतराल बंद है
अगर दिन की रोशनी न पहुँची इन तक
सोया रहेगा अतीत निश्चल पुरानों की गंध में
मनुष्य का मुखौटा पहने चींटी
की तरह जमा करता रहा अब तक मैं दिन-रात
किसी बुरे मौसम की आशंका में
मैं समय को बचा कर रखना चाहता था सुरक्षित चींजे बटोरते हुए
पर केवल चीजें ही बचीं साथ गत्ते में डिब्बों में
बंद कर उन्हें रखना है परछत्ती में
और भूल जाना कहीं
जगह ही नहीं बची याद रखने के लिए भी कुछ
यह सातवाँ घर है मेरा दस साल में
यह मेरा सातवाँ पता है दर साल में
मैं छोड़ आया हूँ खूद को सात बार दस साल में
घिरे हुए आकाश में कहीं
अकेली समुद्री चिड़िया की आवाज़
नये घर को जाती पुराने को लौटती
पैदल अपने पुरखों के रास्ते को नापती
घर बदलने की थकान
ध्यान न रहा कि महीना बीत गया पूरा
जाने कब लिखी यह कविता किसी अस्तव्यस्त में !
इसे फूल की तरह सूँघो इसमें पुरानों की गंध है