भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अस्तित्व संकट / उमा अर्पिता
Kavita Kosh से
बहुत मौसम बीत गये
खामोश हुए
तुम साथ दो, तो
मिलकर शोर मचायें!
आज--
परिस्थितियों की मजबूरी को जीते हुए
हम कितने मजबूर हुए,
पर अब
अंदर ही अंदर ‘कुछ’ घुमड़ रहा है,
एक विस्फोट हुआ चाहता है,
परंतु--
अणु-विस्फोट के धमाके में
यह विस्फोट बेमाना हो गया है,
खो गयी है इसकी आवाज
दुनिया के शोर में।
अब मैं
अपने होने का
प्रमाण आखिर किसे दूं?