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अस्तित्व / अमृता सिन्हा
Kavita Kosh से
या़यावर मन
भटकता,
पहुँचा है सुदूर
संभावनाओं के शहर में।
बादलों से घिरा,
ऊँचाइयों में तिरता, फिसलता सा,
वर्षा की बूँदों को चीरता
उतर आया है मेरा इंद्रधनुष
काली सर्पीली सड़कों पर
दौड़ता भागता, बेतहाशा।
नदी के बीचों-बीच सुनहरे
टापू को एकटक निहारता।
करवटें लेती लहरों से खेलता
ऊँचे चिनार के दरख़्तों में समाता
जाने कहाँ-कहाँ विचर रहा मेरा इंद्रधनुष।
तभी नन्हा-सा मेरा छौना, बेटा मेरा
काटता है एक महीन चिकोटी, बाहों में मेरे
अनायास ही टूटती है तंद्रा मेरी
पूछता है मुझसे
माँ क्या बना?
जागती हूँ मैं स्वप्न से, कटे
वृक्ष की तरह,
और परोस देती हूँ, थाली में
हरे-भरे मायने और रंग-बिरंगे शब्द।