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अस्ति-नास्ति संवाद / रणजीत

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"किस अभागे को अरे इस धूप में दफ़्ना रहे हो
और इसकी मौत पर क्यों ख़ुशी से चिल्ला रहे हो
कौन है ऐसा बिचारा, दो बता ?"
"मर गया ईश्वर, नहीं तुमको पता ?"

"मर गया ईश्वर?
ईश्वर कि जिसने स्वयं अपने हाथ से धरती बसाई
चाँद औ’ सूरज बनाए
पर्वत के, झीलों के, सागर औ’ द्वीपों के नक्श उभारे
ऊँचे-ऊँचे गिरि-शिखरों पर बर्फ़ जमाई
औ’ उनकी लम्बी छाँहों में
नदियों के डोरों से सी कर
वन, उपवन, ऊसर, परती की भूरी-हरी थिगलियों वाले
कंथे से मैदान बिछाए -
ईश्वर कि जिसने आदमी पैदा किया
क्या वही अब मर गया ?"

"हाँ, मर गया ईश्वर कि उसके त्रास सारे मर गए
सृष्टि के आरम्भ से चलते हुए
आदमी के ख़ून पर पलते हुए
अन्याय के इतिहास सारे मर गए !

"मर गया ईश्वर कि उसके धर्म सारे मर गए
स्वर्ग-नरक के, पाप-पुण्य के
पुनर्जन्म औ’ कर्मवाद के मर्म सारे मर गए ।

"मर गया ईश्वर, विषमता का सहायक मर गया
आदमी के हाथ में ही आदमी का भाग्य देकर
विश्व का दैवी विधायक मर गया
मर गया ईश्वर !"

"यह हुआ कैसे मगर ?

"सांइस की किरणों ने मारा, मर गया
वहम का पर्दा उघाड़ा, मर गया
आदमी ने जब तलक पूजा अँधेरे में उसे, ज़िन्दा रहा
रोशनी के सामने ज्यों ही पुकारा, मर गया !"

"खै़र, अच्छा था बिचारा मर गया !"