अस्थियों का वज्र / दिनेश श्रीवास्तव
क्या तुम जानना चाहते हो कि
समाज के मायने क्या होते हैं?
तो आओ
और मेरे हड्डी के ढांचे बने
जीभें मरोड़, दम तोड़ते बैलों से पूछो,
मेरे धुल फांकते, थूक निगल
प्यास बुझाते बच्चों से पूछो,
धरती की छाती फाड़
सोना निकालने वाली
मेरी बीबी से पूछो,
जो आज पेड़ों की जड़ें
और झाड़ियों की पत्तियाँ
पका रही है.
और फिर उन ढेकेदारों से पूछो
जो हमारा अनाज बटोरने के बाद
आज हमीं को, उसे
पत्थर तोड़ने और घिघियाने
के बदले भी देने को कतराते हैं.
पूछा ????
अब तो शायद जान गए होगे
कि समाज की धमनियों में
किसका शोषित रक्त बहता है
और समाज की ये आलीशान इमारतें
किसकी हड्डियों के ढेर पर खड़ीं हैं.
पर मेरे दोस्त
तुम कहीं
यह न भूल जाना कि
रक्त की गागर से
सीता का जन्म होता है
और
हड्डियों से वज्र
भी बनता है.
(सत्तर के दशक में महाराष्ट्र में भयंकर सूखा पड़ा था. उन्हीं दिनों टाइम्स ऑफ़ इंडिया अख़बार में एक चित्र छपा था जिसमें एक माँ एक मिट्टी की हांडी में कुछ पत्तियाँ उबाल रही थी, और उसके बच्चे "खाना" तैयार होने की प्रतीक्षा कर रहे थे. यह कविता लिखी तो तभी गयी- उस समय मैं बंबई में रहता था- छपी बहुत बाद में. प्रकाशित - आने वाला कल, कलकत्ता, १६.९.१९८०)