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अस्मिता / शैलेन्द्र चौहान

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इधर कभी फ़ुर्सत मिले
मेरे घर आओ/देखो...
घर की दीवाल पर
मक़बूल का चित्र
क्रंदन है जिसकी आत्मा में...
उसकी अस्मिता खो चुकी है

दरवाज़ों पर जड़ी
सप्तधातु की पट्टियाँ
मंद्धिम पड़ गई जिनकी चमक

एक पुराना पेड़
लगातार पतझड़ का ऐलान करता
हमेशा हरहराता,
रुंडमुंह खड़ा पाताली नल
यह सब/मेरा घर-द्वार

आँगन में खड़ी पत्नी
जिसके सपने दूर गगन में
उड़ती चिड़िया की तरह
मेरा हृदय रेगिस्तान...
टीन-कनस्तर,
क्रॉस, मरियम की वेदना

लगातार सोचता हूँ मैं
फ़र्क!
मेरे और दूसरों के घर का
और... घ्ज्ञर और बेघर का

घास-फूस की झोंपड़ी
ढिबरी बुझा दी
गरीब औरत ने
तुम्हारा हर बेटा
ईसा मसीह हुआ/माँ...

मैं सोचता हूँ
मेरा घ्ज्ञर
मुक्तिबोध की बावड़ी
निर्जन, भयानक, वीरान
जंगल की तरह
अपना सौंदर्य कहाँ पा सका?

ममता, करुणा/कहाँ खो गई?
टिमटिमाती रोशनी/कहाँ बुझ गई?

झोंपड़ी में दिया जलना
आनंद का स्रोत है
सूर्य की रोशनी
बहुत तेज़ है
दीवारें परत छोड़ रही हैं

घर का मोह
मिटेगा अब।