भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अस्वीकृति / हंसराज

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कमल, थलकमल-नारी, शय्यागत, मौलाएल
कहैत छथि पुनि बेर-बेर सभ दिन जकाँ-
आउ, अहाँ हमरे लग आउ,
वरण क’ लिअ’ हमरा,
शरण देब हम,
अहाँ हमरे अनुसरण करू।

- हे कमल !
अहाँ हमर मोह त्यागि दिअ’।
अहाँ हमरा शरण नहि द’ सकब।
अहाँक सम्पूर्ण आवरण-अस्तित्व लाल अछि,
केवल लाल टुह टुह।
हम तँ लाल नहि, रंगलो नहि, उज्जर छी।
हम अधिक उज्जर छी, साफ।
 आ, चाहैत छी आर अधिक स्वेत, धवल !
कामना करैत छी जे उगैत रहओ दिनकर !!
अन्हार कक्षमें एकसर ठाढ़ निर्लिप्त
हमरा मोन होइत अछि वातायन द’ कहि देबाक
उत्तर, अस्वीकृति