भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अहंकार / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चौकड़ी मार कर
बैठा रहता है
मेरे ऊपर
मेरा अहंकार
चमगादड़-सा लिपट जाता है
ज्यों-त्यों हर बार

कुछ न होने पर ही
चढ़ता है यह नशा
खाली चना बाजे घना का अवतार
कैसे उतारू या हटकूँ
इसे बार-बार

काश!
मार सकती मैं
इसे दुल्लती
फिर दुत्कारती इसे
यह घायल कुत्ते-सा
रिरियाता चूँ-चूँ करता
घुस जाता किसी और घर
छोड़ कर मेरा मन द्वार।