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अहमदाबाद 1974 और 1984 / साहिल परमार / जयन्त परमार
Kavita Kosh से
विस्तृत आकाश डुगडुगी बजाता है
बिखरे सितारे कहीं-कहीं
टिमटिमा रहे हैं
आज मिल के सायरन जैसी
सिसकियों की आवाज़ से
क्षितिज धुन्धला गया है
चान्द चिन्दी-चिन्दी है
एक... दो... तीन... दस... बारह
टुकड़े गिरते हैं
शहर पर
उसके बोझ तले कुचल गए
इस शहर के
लाखों मनुष्य
लाख आँखों के
लाख सपने
सपनों का श्मशान
बन गया है यह शहर
श्मशानवत्
अन्धकार दबोचता है
मुझे
दम घुट जाए
इससे पहले
मैं बोल सकता हूँ इतना ही —
’हॉस्टल का फ़ूड-बिल बहुत बड़ा मसला था।’
मूल गुजराती से अनुवाद : जयन्त परमार