अहमदाबाद : 1974 और 1984 / साहिल परमार
फैला हुआ आसमान
डिम-डिम बजाता है।
बिखरे हुए तारे
आग लगी मिल के भोंपू जैसे
टिमटिमाते हैं।
रोती हुई आवाज़ों से
क्षितिज धुन्धला हो गया।
इस शहर के चाँद के
टुकड़े टूट रहे हैं
एक..दो..चार..दस.....बारह...
टुकड़े हो रहे हैं
इस शहर में
उसके बोझ तले
दबते जाते हैं
इस शहर के लाख-लाख इनसान
लाख-लाख आँखों के कोटि-कोटि सपने
सपनों का शमशान बन रहा है यह शहर
भूख से त्रस्त अन्धेरा
अपनी चंगुल में
मुझे जकड़ रहा है।
गला जकड़ जाए इससे पहले
मैं बोल पाता हूँ इतना ही;
‘होस्टेल का फ़ूड बिल
बहुत बड़ी घटना थी।
एल..डी.इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों के फ़ूड बिल के छोटे से मामले से शुरू होकर १९७४ में गुजरात में नवनिर्माण आन्दोलन हुआ था।
इसके बाद दस साल बाद १९८४ में शहर का अहम उधोग – बारह मिलें बन्द होने के बावजूद भी कुछ नहीं हो
पाता – यह विवशता है समय की।
मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार