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अहल्या / शारदा शर्मा / सुमन पोखरेल

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सुदूर काल से
धीरे-धीरे
इकट्टे हो होकर अनेक पत्र दुखों के
जमते हुए
चट्टान बनी हुई थी मैं
भरोसा मर चुका था हर कोई से
मन के अंदर की पत्थर-पीड़ा
फिर से बहने लगी कलकल
राम।
मैं जी उठी
जब तुमने छुआ।

मुझ पे छल करने वाले
स्वर्ग के राजा बन बैठे हैं
अप्सराओं से घिरे
शक्तिशाली
मदोन्मत्त
उन्हें न तो पाप लगता है
न ही कोई लांछना
कभी ब्रह्महत्या
कभी बलात्कार
महर्षियों की संयम पर भी
लगातार आक्रमण कर रहे हैं
फिर भी उन्हें
कभी भी क्यों नहीं गिरना पड़ता?

रजोवती
हर महीने
मैं अछूत होकर चुकता करती रही हूँ
उनकी ब्रह्महत्या-दोष का एक अंश
स्त्री-लुब्ध
शरीर पर चिपके हुए
सहस्त्र योनियों के शाप से जब मुक्त कर दिए गए वो
और, इधर मैं लांछित ही होती रही
क्यों राम?

यहाँ घुमरहे हैं निर्भय होकर
मुझे बलात्कार करने वाले
मुकदमे को हराने वाले
यहीँ हैं
गवाही बदलने वाले
गिराने वाले और उछालने वाले
तमाशा बनकर
सभी के अपराधों का बोझ अकेली ढोती हुई
मैं पूजा,
अहल्या की आधुनिक संस्करण
शक्ति की पागल आंधी द्वारा नीली गई
मैं निर्मला
पत्थर बनकर मुझ से अचेत सोया हुवा इस विकराल कालखंड
मेरा पीया हुवा अपमान के ये विषकुण्ड
हिसाब होगा या नहीं, मेरे अविरल-धारा आंसुओं के इन सहस्त्र तालवों का
राम,
मेरे ऊपर
न्याय होगा या नहीं?

मुर्दा बन चुकी थी मैं
फिर से गूंज उठा गीत
हृदय-वीणा पर तार झनकने लगे
जब तुमने छुआ
धन्य राम,
मैं उठी
जीवन तो पाई मैंने
पर कहो,
मुक्ति कहाँ पायी?

कभी ठीक न होने वाली
घाव की तरह नजिर स्थापित कर
तुमने सीता की परीक्षा
क्यों ली राम?

०००
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