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अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर / गणेश बिहारी 'तर्ज़'
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अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई
ज़िंदगी मजबूरियों का नाम हो कर रह गई.
हो गए बर्बाद तेरी आरज़ू से पेश-तर
ज़ीस्त नज़्र-ए-गर्दिश-ए-अय्याम हो कर रह गई.
तौबा तौबा उस निगाह-ए-मस्त की सर-शारियाँ
देर-पा तौबा भी ग़र्क़-ए-जाम हो कर रह गई.
उस निगाह-ए-नाज़ को तो कोई कुछ कहता नहीं
और मोहब्बत की नज़र बद-नाम हो कर रह गई.
हर ख़ुशी तब्दील ग़म में हो गई तेरे बग़ैर
सुब्ह मुझ तक आई भी तो शाम हो कर रह गई.
रू-ब-रू उन के कहाँ थी फ़ुर्सत-ए-इज़हार-ए-ग़म
लब को इक जुम्बिश बराए नाम हो कर रह गई.
उन के जलवों की सहर तो 'तर्ज़' दुनिया ले गई
गेसुओं की शाम अपने नाम हो कर रह गई.