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अहसान कभी आज से उसका नहीं लेगा / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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अहसान कभी आज से उसका नहीं लेगा
कुछ भी हो कहीं से भी हो घटिया नहीं लेगा
कुछ तीस बरस पास समुन्दर के रहा जो
दरिया तो चलो ठीक है सहरा नहीं लेगा
फितरत से तकब्बुर न करेंगे जो रवाना
इसलाह कोई आपसे असला नहीं लेगा
हरसू हो असर चाल भी बेख़ौफ़ चले वो
घोड़ा कभी शतरंज में रस्ता नहीं लेगा
वो चैन से बैठेगा किसी हाल न तब तक
भारत का ये परचम वहाँ फहरा नहीं लेगा
हर डूबने वाले की मदद करता है लेकिन
उपकार के बदले कभी तिनका नहीं लेगा
घर ही में बना लो किसी कपड़े से अभी ये
इस साल भी तालिब नया बस्ता नहीं लेगा
था एक महाजन जो हुआ गाँव का मुखिया
एलान किया क़र्ज़ वो पिछला नहीं लेगा
पूछो न मिरा हाल के कैसे हो 'रक़ीब' अब
जो क़र्ज़ चुकाना था वो मुखिया नहीं लेगा