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अहो नाथ ! जेइ-जेइ सरन आए तेइ तेइ भए पावन / सूरदास

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अहो नाथ ! जेइ-जेइ सरन आए तेइ तेइ भए पावन सूरदास श्रीकृष्णबाल-माधुरी राग धनाश्री

अहो नाथ ! जेइ-जेइ सरन आए तेइ तेइ भए पावन ।
महापतित-कुल -तारन, एकनाम अघ जारन, दारुन दुख बिसरावन ॥
मोतैं को हो अनाथ, दरसन तैं भयौं सनाथ देखत नैन जुड़ावन ।
भक्त हेतदेह धरन, पुहुमी कौ भार हरन, जनम-जनम मुक्तावन ॥
दीनबंधु, असरनके सरन, सुखनि जसुमति के कारन देह धरावन ।
हित कै चित की मानत सबके जियकी जानत सूरदास-मन-भावन ॥

भावार्थ :-- `हे स्वामी ! जो जो आपकी शरण आये, वे सब परम पवित्र हो गये । आपका एक ही नाम (आपके नाम का एक बार उच्चारण) ही महान् पतितों के भी कुल का उद्धार करने वाला, पापों को भस्म करने वाला तथा कठिन से कठिन दुःख को विस्मृत करा देने वाला है। मेरे समान अनाथ कौन था; किंतु आपके दर्शन से मैं सनाथ हो गया, आपका दर्शन ही नेत्रों को शीतल करनेवाला है। आप भक्तों का मंगल करने, पृथ्वी का भार दूर करने एवं (अपने भक्तों को) जन्म-जन्मान्तर से छुड़ा देने के लिये अवतार धारण करते हैं । दीनबंधु! आप अशरण को त्राण देने वाले हैं, सुखमयी यशोदा जी के लिये आपने यह अवतार धारण किया है । आप सबके चित्त के प्रेम-भाव का आदर करते हैं, सबके मन की बात जानते हैं, सूरदास जी कहते हैं - मेरे मनभावन आप ही हैं।