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अह्दे —उल्फ़त का हर इक लफ़्ज़ मिटाया होता / सुरेश चन्द्र शौक़
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अह्दे —उल्फ़त का हर इक लफ़्ज़ मिटाया होता
हम न थे याद के क़ाबिल तो भुलाया होता
दिल में जो बात थी दिल खोल के कह दी होती
तुमने दीवार—ए— तक़ल्लुफ़ गिराया होता
इंतज़ार और अबस है दिल—ए—नादाँ तुझ को
आना होता अगर उसको तो वो आया होता
तल्ख़ियाँ इतनी अगर देनी थीं यारब मुझको
इतना हस्सास मिरा दिल न बनाया होता
पहले ही वादा न करते तो कोई बात न थी
वादा जब कर लिया था तो निभाया होता
आज अपने भी कहाँ अपनों —सा करते हैं सुलूक
शौक़ अच्छा था जो हर शख़्स पराया होता
दीवार—ए—तक़ल्लुफ़ = संकोच की दीवार; अबस=व्यर्थ;हस्सास=भावुक