भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अेक सौ पैंतीस / प्रमोद कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
ना लिख सकै कीं
ना दिख सकै कीं
बै-
अैड़ो रूप बणावै जीवण रो
वौपारी समझै के सुवाद तीवण रो!
बां सारू भूख री अगन ई साच है
दो अर दो हरमेस ई पांच है
बै भोग अर विलास मांय रच्योड़ा है
पण कीं फकीर
अजै ई बच्योड़ा है
बै ही सत भाखा रो सांभसी
अरे! कदैई तो विस्वत् रेखा लांघसी
जठै :
भाखा रो विश्व-परिवार है
हरेक भाखा मिरतु मांय
जीवण रो आविस्कार है।