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अ-परंपरित / प्रभाकर माचवे

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चंद, तुम भाट थे, तुलसी तुम भक्त
भूषण, तुम चारण थे, कबिरा अनासक्त
भारतेंदु दानी थे, रईस थे
पंत और निराला उन्नीस-बीस थे
माखनलाल, गुप्तबंधु राष्ट्र का सहारा था
बेचारा मुक्तिबोध खोया आत्महारा था
प्रसाद और अज्ञेय
महादेवी अनुपमेय
इस दिव्य परंपरा में मैं मिट्टी का दिया हूँ
जैसा कुछ उसने दिया उसी पर जिया हूँ
सत्ता या, संस्था में,
श्री में, व्यवस्था में
मेरा विश्वास नहीं, कहीं भी न बंधा मैं
इसीलिए मन का स्वर कहीं नहीं सधा मैं
गंगा की हुगली तक
परंपरा जलधी तक
वेद से विनोबा तक कौन-सी है धारा?
बुध्द और नानक को, किस नाम से पुकारा?
मैं हूँ एक सिकता-कण
जिससे काल का गणन
मैंने कब पहचाना कौन-सा प्रवाह है
जाना सिर्फ अंतर्दाह, दुख पर जो पसीजेआप इसे कहते हों कविता तो कह लीजे
खीझें या रीझें आप, मेरी ये ही चीजें।