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आँखीं से राखी केॅ / कस्तूरी झा 'कोकिल'
Kavita Kosh से
राखी केॅ आँखी में सूतै छीहौं रात केॅ।
जागला पर करै छीहौं याद मधुर बात केॅ।
बाहर निकलापर कुच्छो नैं सूझे छै
हवाँ पूरवैयाँ हेॅ कुच्छो नैं बूझे छै।
ऊपरो सें टपकै छै एक दूगो बुन,
भीतरे भीतर लागै छै जानीं लेॅ घुन,
घटा घुटी घिरलेॅ छै तारों नुकैल छै,
बिजली के बती हे सगरों बुझैले छै।
उठी-उठी बैठी छीहौं पानी बहाबै छीहौं
तार खजूर झूमैंछै बिछौनापर आबै छीहौं।
सपनाँ ससुरारी के स्वागत अपार छै
बच्चा केॅ उछल कूद प्यार छै दुलार छै।
समधी आरो साला के हेॅसियो भरमार छै
यही नाँकी बितलै दिन साफ-साफ) लिखै छीहों
ऊपर-ऊपर हँस्सी केॅ केन्हीं केॅ जीयै छीहौ
(16.3.15, सोमवार 06 बजे सुबह)