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आँखें चुभती हैं / दिनेश जुगरान
Kavita Kosh से
नहीं, मुझे नहीं है तुम्हारे रहस्यों को जानने की इच्छा
अदृश्य इशारों की तुम्हें ज़रूरत नहीं
तुम्हारी आँखें ही चुभती हैं शरीर में
उन दीवारों पर अहंकार की स्याही है
जिन पर चिपके हैं तुम्हारे आश्वासन
जीने दो मुझे फुटपाथ पर तुम्हारी सड़कों पर बहुत
फिसलन है
शरीर के अंदर भी झलकता है तुम्हारा छायाचित्र
मेरी उजड़ी क्यारियों में उगे फूल घायल पंछी की आवाज़
लगते हैं
तुमसे अधिक भय रहता है मुझे
उन परछाइयों से जो शुरू होती हैं तुम्हारे पैरों से